ग़ज़वा-ए-हिन्द यानी भारत को जीतने का पुराना स्वप्न, कुत्सित आँखों की विभिन्न चरणों की योजना सदियों से चल रही है। ख़ासी सफल भी हुई है। वृहत्तर भारत की बहुत सारी धरती भारत से अलग की जा चुकी है। आपसे, इसी के एक चरण अर्थात बांग्ला देश को विराट भारत से अलग करने के षड्यंत्र के बारे में पिछले अंक में चर्चा हो चुकी है। उसी षड्यंत्र के एक और भाग म्यांमार की बातचीत आज करना चाहता हूँ। मूर्ति पूजक, प्रकृति पूजक, बौद्ध तंत्र तथा बुद्ध धर्म की महायान शाखा को मानने वाला म्यांमार या बर्मा भारत, थाईलैंड, लाओस, बांग्लादेश और चीन से घिरा हुआ देश है। इसका आकार 6,76,578 वर्ग किलोमीटर का है। इसकी धरती रत्नगर्भा है। माणिक, जेड जैसे कीमती जवाहरात, तेल, प्राकृतिक गैस और अन्य खनिज संसाधनों से समृद्ध यह देश बहुत समय से उथलपुथल से भरा हुआ है। यहाँ सैन्य शासन लगातार उपस्थिति बनाये हुए है। सैन्य शासन समाप्त होने के बाद भी राजनैतिक दल सैन्य अधिकारियों से भरे हुए हैं।
बर्मा में भी मुस्लिम धर्मांतरण के साथ संसार के अन्य सभी देशों में होने वाली उथल-पुथल शुरू से है। सभी अमुस्लिम देशों जिनमें इस्लाम का प्रवेश हो गया हो, में मुस्लिम जनसंख्या बढ़ने पर एक विशेष प्रवृत्ति पायी जाती है। वो यह कि हम मुसलमान अब अधिक संख्या में हैं और अन्य धर्मावलम्बियों की जीवन शैली हमसे भिन्न है अतः हम उनके साथ नहीं रह सकते। हमें अलग देश चाहिए। ये हाय-हत्या अन्य देशों में जैसे मुस्लिम जनसँख्या बढ़ने के साथ होने लगती है वैसी ही बर्मा में भी होती आई थी मगर इसकी स्थिति विस्फोटक द्वितीय विश्व युद्ध के काल में हुई। ब्रिटिश उपनिवेश रहे बर्मा पर द्वितीय विश्व युद्ध के समय जापानी सेना ने हमला बोला। ब्रिटेन के पांव उखड़ने लगे। पीछे हटते हुए ब्रिटिश राज ने बर्मा में जापानियों के खिलाफ अपने छिपे दस्ते बनाने की कोशिश में रोहिंग्या मुसलमानों को ढेरों शस्त्र उपलब्ध कराये। इन लोगों ने रोहिंग्या मुसलमानों को आश्वासन दिया कि इस युद्ध में यदि उन्होंने ब्रिटेन का साथ दिया तो उन्हें इस्लामी राष्ट्र दे दिया जाएगा।
हथियार पाकर रोहिंग्या मुसलमान भारत के मोपला मुसलमानों की तरह उपद्रव पर उत्तर आये और उन्होंने जापानियों से लड़ने की जगह अरकान के बौद्धों पर हमला बोल दिया। ये बिलकुल वैसा ही था जैसा भारत में गांधी के नेतृत्व में खिलाफत आंदोलन के समय हुआ। जैसे अंग्रेज़ों के खिलाफ और तुर्की के खलीफा के पक्ष में आंदोलन करते मोपला मुसलमान हिन्दुओं पर क्रोध उतरने लगे और उन्होंने लाखों हिन्दुओं की हत्या की, उसी तरह रोहिंग्या मुसलमान अंग्रेजों की कृपा से अपना राज्य पाने की जगह स्वयं ही बौद्धों को मिटा कर मुस्लिम राष्ट्र पाने की दिशा में चल पड़े । जिस तरह 1946 में कलकत्ता में किये गए डायरेक्ट एक्शन में एक दिन में मुस्लिम गुंडों ने 10,000 हिन्दुओं को मार डाला था, उसी 28 मार्च 1942 को रोहिंग्या मुसलमानों ने बर्मा के मुस्लिम-बहुल उत्तरी अराकान क्षेत्र में 20,000 से अधिक बौद्धों को मार डाला।
मई 1946 में बर्मा की स्वतंत्रता से पहले अराकानी मुस्लिम नेताओं ने भारत में मुस्लिम लीग के नेता मोहम्मद अली जिन्ना से संपर्क किया और मायू क्षेत्र को पूर्वी पाकिस्तान में शामिल कराने के लिए उनकी सहायता माँगी। इसके पूर्व अराकान में जमीयतुल उलेमा ए इस्लाम नामक एक संगठन की स्थापना हुई। इसका उद्देश्य भी अराकान के सीमांत जिले मायू को पूर्वी पाकिस्तान में मिलाना था। स्वाभाविक था बर्मा सरकार ने मायू को स्वतंत्र इस्लामी राज्य बनाने या उसे पाकिस्तान में शामिल करने से इनकार कर दिया। इससे क्रुद्ध उत्तरी अराकान के मुजाहिदों ने बर्मा सरकार के खिलाफ जिहाद की घोषणा कर दी। मायू क्षेत्र के दोनों मुस्लिम-बहुल शहरों ब्रथीडौंग एवं मौंगडाऊ में अब्दुल कासिम के नेतृत्व में लूट, हत्या, बलात्कार एवं आगजनी का भयावह खेल शुरू हो गया और कुछ ही दिनों में इन दोनों शहरों से बौद्धों को या तो मार डाला गया अथवा भगा दिया गया। अपनी जीत से उत्साहित होकर सन 1947 तक पूरे देश के प्राय: सभी मुसलमान एकजुट हो गये एवं मुजाहिदीन मूवमेंट के नाम से बर्मा पर लगभग आतंरिक आक्रमण ही कर दिया गया। स्थिति इतनी भयानक हो गयी कि 1949 में तो बर्मा सरकार का नियंत्रण अराकान के केवल अकयाब शहर तक सीमित रह गया, बाकी पूरे अराकान पर जिहादी मुसलमानों का कब्जा हो गया। हजारों बंगाली मुस्लिम उस क्षेत्र में ला कर बसाए गए। इस घुसपैठ से क्षेत्र में मुस्लिम आबादी काफी बढ़ गई। मुजाहिदीन यहीं नहीं रूके। अराकान से सटे अन्य प्रांतों में भी यही नीति अपनायी जाने लगी और ये पूरा क्षेत्र म्यांमार के लिए कोढ़ बन गया।
बर्मा ने 1946 में स्वतंत्रता प्राप्त की और तभी से वहां उपद्रव प्रचंड हो गया। रोहिंग्या मुसलमानों ने बर्मा की स्वतंत्रता प्राप्ति के साथ ही बर्मा से अलग होकर पाकिस्तान (पूर्वी पाकिस्तान, जो अब बँगलादेश बन गया है) में शामिल होने का संघर्ष छेड़ दिया। रात-दिन हिंसा की घटनाएँ होने लगीं। विवश हो कर बर्मा सरकार ने सैन्य कार्यवाही के आदेश दिये। विश्व के लगभग प्रत्येक मुस्लिम देश ने बर्मा सरकार के इस अभियान की निंदा की परन्तु सरकार पर इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ा और सेना ने पूरे क्षेत्र में ज़बरदस्त रूप से आतंकवादियों को पकड़ना शुरू कर दिया। हज़ारों धावे किये गए। जिहादियों की कमर तोड़ दी गयी और अधिकतर जेहादी जान बचाकर पूर्वी पाकिस्तान भाग गये, कुछ भूमिगत हो गये और अन्दर ही अन्दर विश्व के कट्टरपंथी इस्लामी गुटों के सम्पर्क में रहे। अपनी शक्ति बढ़ाते रहे और जिहाद के लिए सही अवसर की प्रतीक्षा करते रहे।
ये अवसर उन्हें 1971 में पूर्वी पाकिस्तान के बँगलादेश के रूप में उदय के बाद फिर से मिला। बचे खुचे जिहादियों में फिर छटपटाहट शुरू हुई और 1972 में जिहादी नेता जफ्फार ने रोहिंग्या लिबरेशन पार्टी (आर.एल.पी.) बनाई और बिखरे जिहादियों को इकट्ठा करना शुरू किया। हथियार बँगलादेश से मिल गए और जिहाद फिर शुरू हो गया। परन्तु 1974 में फिर से बर्मी सेना की कार्रवाई के आगे पार्टी बिखर गई और इसका नेता जफ्फार पिट-छित कर बँगलादेश भाग गया। इस हार के बाद पार्टी का सेक्रेटरी मोहम्मद जफर हबीब सामने आया और उसने 1974 मुस्लिम जिहादियों के साथ रोहिंग्या पैट्रियाटिक फ्रंट का गठन किया। इसी फ्रंट के सी.ई.ओ. रहे मोहम्मद यूनुस ने रोहिंग्या सोलिडेरिटी आर्गनाइजेशन (आर.एस.ओ.) बनाया और उपाध्यक्ष रहे नूरुल इस्लाम ने अराकान रोहिंग्या इस्लामिक फ्रंट (ए.आर.आई.एफ) का गठन किया।
इन जिहादी संगठनों की मदद के लिए पूरा इस्लामी जगत सामने आ गया। इनमें बँगलादेश एवं पाकिस्तान के सभी इस्लामी संगठन, अफगानिस्तान का हिजबे-इस्लामी, भारत के जम्मू कश्मीर में सक्रिय हिजबुल मुजाहिदीन, इंडियन मुजाहिदीन, मलेशिया के अंकातन बेलिया इस्लाम मलेशिया ( ए.बी.आई.एम) तथा इस्लामिक यूथ आर्गनाइजेशन आफ मलेशिया मुख्य रूप से शामिल थे। पैसा अरब राष्ट्रों से आता रहा। पाकिस्तानी सैनिक गुप्तचर संगठन आई.एस.आई. ने रोहिंग्या मुसलमानों को पाकिस्तान ले जाकर उन्हें अपने ट्रेनिंग कैंपों में उच्च स्तरीय सैनिक तथा गुरिल्ला युद्धशैली का प्रशिक्षण प्रदान किया। इसके बाद ये लड़ाई और भी हिंसक हो गयी। पूरे देश में बौद्धों पर हमले होने लगे। फिर भी बर्मा का सामान्य नागरिक मूर्ख भारतीय जनता की तरह अपनी सुरक्षा के प्रति उदासीन बना रहा। भारत की तरह वहाँ भी कायरतापूर्ण शान्ति और झूठी एकता का पाठ पढ़ाने वाले नेताओं का कुचक्र चल रहा था।
ऐसे में मांडले के बौद्ध भिक्षु पूज्यचरण अशीन विराथु सामने आये। जिन्होने अपने प्रभावशाली भाषणों से जनता को समझाया कि यदि अब भी वो नहीं जागे तो उनका अस्तित्व ही मिट जाएगा। इसी दौरान कुछ हिंसक झड़पें हुईं कई बौद्ध मारे गये। शनैः शनिः जनता इन झगड़ों का मूल कारण जिहाद और उसके कारण होने वाली दुर्दशा को समझने लगी। जब अपनी जिन्दगी पर प्रभाव पड़ता है तो स्वाभाविक ही नींद खुल जाती है। अंततोगत्वा जनता का धैर्य टूट गया और लोग भड़क उठे। यहाँ तक कि दुनिया में सबसे शान्तिप्रिय माने जाने वाले बौद्ध भिक्षुओं ने भी हथियार उठा लिया। फिर तो बर्मा की तस्वीर ही बदलने लगी। इस्लामी आतंकवाद की पैदावार हिंसक झड़पों एवं उनके भड़काऊ भाषणों पर पूज्य अशीन विराथु के तेजस्वी उद्बोधनों से बर्मा की सरकार ने सेकुलरिज्म दिखाते हुए विराथु को 25 वर्ष की सजा सुनायी थी। लेकिन देश जाग चुका था और विराथु के जेल जाने के बाद भी देश जलता रहा और जनता के जबरदस्त दबाव में सरकार को उन्हें उनकी सजा घटाकर केवल सात साल बाद 2011 में ही जेल से रिहा करना पड़ा। रिहा होने के पश्चात भी विराथु की कट्टर राष्ट्रवादी सोच में कोई परिवर्तन नहीं हुआ। और वे अनवरत रूप से अपने अभियान में लगे रहे।
28 मई 2012 को मुस्लिम गुंडों ने एक बौद्ध महिला का बलात्कार करके हत्या कर दी जिसके बाद पूरे बर्मा के बौद्ध अत्यंत उग्र हो गये और फिर तो वहाँ ऐसी आग लगी कि पूरा देश जल उठा। म्यांमार के दंगों में विराथु के भड़काऊ भाषणों ने आग में घी का काम किया। उन्होंने साफ कहा कि अब यदि हमें अपना अस्तित्व बचाना है तो अब शांत रहने का समय नहीं है। उन्होने बुद्ध के अहिंसा-शांति के उपदेशों के रास्ते को छोड़कर आक्रमण की नीति अपनाने के उपदेश दिए। मोक्ष की साधना आखिर शांतिमय वातावरण चाहती है। रात-दिन हमलों, बम विस्फोटों से देश को बचाना शांति-अहिंसा के पालन के लिए ही आवश्यक है। उन्होने म्यांमार की जनता को साफ कहा कि अगर हमने इनको छोड़ा तो देश से बौद्धों का सफाया हो जाएगा और बर्मा मुस्लिम देश हो जायेगा..।
विराथु ने जनगणना के आंकड़ों से तथ्यात्मक रूप से सिद्ध किया कि मुस्लिम अल्पसंख्यक बौद्ध लड़कियों को फंसाकर शादियाँ कर रहे हैं एवं बड़ी संख्या में बच्चे पैदा करके पूरे देश के जनसंख्या-संतुलन को बिगाड़ने के मिशन में दिन रात लगे हुए हैं। जिसके कारण बर्मा की आन्तरिक सुरक्षा के लिये भारी संकट पैदा हो गया है। इनका कहना है कि मुसलमान एक दिन पूरे देश में फैल जाएंगे और बर्मा में बौद्धों का नरसंहार शुरू हो जाएगा। विराथु के विचारों का जनसाधारण में प्रचंड समर्थन देखकर वहाँ की सरकार भी झुकी और वहाँ की राष्ट्रपति ने सार्वजनिक रूप से कहा- इस्लामी आतंकियों को अब अपना रास्ता देख लेना चाहिए . . हमारे लिए महत्वपूर्ण हमारे देश के मूलनिवासी हैं। मुस्लिम चाहें तो शिविरों में ही रहे ... या बांग्लादेश जाए।
विराथु ने अपने देश से लाखों आतंकवाद के समर्थकों, प्रेरकों को भागने पर मजबूर कर दिया। वे अपनी बातें अधिकांशतः डीवीडी और सोशल मीडिया के माध्यम से लोगों तक पहुंचाते हैं। धीर-गंभीर विराथू दृष्टि नीचे किए शांत स्वर में अपने हर उपदेश में बौद्धों के संगठित होने और हिंसा का जवाब हिंसा से देने का उपदेश देते हैं। मंडाले के अपने मासोयिन मठ से लगभग दो हजार पांच सौ भिक्षुओं की अगुआई करने वाले विराथु के फेसबुक पर हजारों फालोअर्स हैं और यूट्यूब पर उनके वीडियो को लाखों बार देखा जा चुका है। छह करोड़ की बौद्ध आबादी वाले म्यांमार में मुसलिम विरोधी भावना तेजी से गति पकड़ रही है। बौद्ध भिक्षुओं को शांति और समभाव का आचरण करने के लिए जाना जाता है किंतु म्यांमार के अधिकांश बौद्ध आत्मरक्षा के लिए अब जिहादियों का तौर-तरीका अपनाने में भी कोई संकोच नहीं कर रहे हैं।
म्यांमार में हुए कई सर्वे के बाद ये प्रमाणित हो चुका है कि जनता एवं बौद्ध भिक्षु विराथु के पूरी तरह साथ हैं। विराथु का स्वयं भी कहना है कि वह न तो घृणा फैलाने में विश्वास रखते हैं और न हिंसा के समर्थक हैं, लेकिन हम कब तक मौन रहकर सारी हिंसा और अत्याचार को झेलते रह सकते हैं? इसलिए वह अब पूरे देश में घूम घूम कर भिक्षुओं तथा सामान्यजनों को उपदेश दे रहे हैं कि यदि हम आज कमजोर पड़े, तो अपने ही देश में हम शरणार्थी हो जाएँगे। म्यांमार के बौद्धों के इस नये तेवर से पूरी दुनिया में खलबली मच गई है। दुनिया भर के अखबारों में उनकी निंदा में लेख छापे जा रहे हैं परन्तु पूज्य चरण अशीन विराथु को इससे कोई अंतर नहीं पड़ता। वो पूर्ववत असली राष्ट्र आराधन में लगे हुए हैं।
तुफैल चतुर्वेदी
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