दोहो की धारा

रखवाला तो सो रहा ,क्या होगा अब हाल।
लोकतंत्र के खेत में, घुस आए स्रंगाल ॥ १ ॥


दिल्ली की ही भूल के, भोगे हैं संत्रास ।
दिल्ली फ़िर दोहरा रही पुनः वही इतिहास ॥ 2 ॥


दिया पंथनिरपेक्षता , को इतना सम्मान।
बहुसंख्यक की आस्था, कर दी लहूलुहान ॥ ३ ॥


हुए अचानक देश में,आतंकी विस्फोट।
लगी होड़ नेताओं में,कोन बटोरे वोट ॥ ४ ॥

बेटो को ही राज का,देकर उतराधिकार ।
नेता पैनी कर रहे, लोकतंत्र की धार ॥ ५ ॥

कैसे लिक्खे लेखनी, अब फूलों के छंद।
उपवन में है फैलती,बारूदी दुर्गंध ॥ ६॥


नई आर्थिक नीतियो , का करती उपहास।
सड़क किनारे पड़ी हुई, भूखी -नंगी लाश ॥ ७ ॥

प्रातः आँगन में गिरे, आकर जब अखबार।
करने लगता तेज फ़िर,में चाकू की धार ॥ ८ ॥

पुन्य से अब पाप का, छिड़ने दो संग्राम।
धरती को शायद मिले, फ़िर से कोई राम॥


रचनाकार--मेरे पिता श्री देवेन्द्र सिंह त्यागी

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